14 मौतों के बाद AFSPA हटाने की मांग:एक्सपर्ट्स बोले, हटाया तो कश्मीर को भूल जाओ, जानिए क्यों इससे थर्राते हैं आतंकी

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नगालैंड के मोन जिले में 4 दिसंबर की शाम को आर्म्ड फोर्सेज ने एक गाड़ी पर अंधाधुंध फायरिंग की थी। उन्हें शक था कि गाड़ी में मिलिटेंट बैठे हैं, जबकि उस गाड़ी में मजदूर सवार थे जो वापिस लौट रहे थे। 14 लोगों की मौत हो गई।

सेना ने इंक्वायरी ऑर्डर कर दी, लेकिन नॉर्थ ईस्ट के मणिपुर, मेघालय और असम में तब से ही प्रदर्शन चल रहे हैं। लोगों की एक ही डिमांड है कि, आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट 1958 (AFSPA) को हटाया जाए। यही वो एक्ट है जो आर्म्ड फोर्सेज को संदिग्ध पर गोली चलाने, तलाशी लेने, छापा मारने और हिरासत में देने जैसे तमाम अधिकार देता है। मणिपुर के CM और उनके कैबिनेट मंत्री भी खुलकर इस एक्ट के विरोध में आ गए हैं। हमने आर्म्ड फोर्सेज में सीनियर पोजिशन पर रहे दो एक्सपर्ट्स से बात कर जाना कि यह एक्ट क्या है, क्यों है और जरूरी क्यों है। पढ़िए इस रिपोर्ट में।

सबसे पहले इस एक्ट को समझें…AFSPA है क्या
इस एक्ट में आर्म्ड फोर्सेज को स्पेशल पावर मिलते हैं। वे संदिग्ध को गोली मार सकते हैं। बिना वारंट के छापा मार सकते हैं। पूछताछ कर सकते हैं और संदिग्ध को हिरासत में भी रख सकते हैं। पुलिस मुकदमा जरूर दर्ज कर सकती है, लेकिन मामला न्यायालय में नहीं ले जा सकती। केंद्र सरकार चाहे तो जरूर कार्रवाई कर सकती है।

भारत में कैसे लागू हुआ…
भारत छोड़ो आंदोलन की काट में यह एक्ट साल 1942 में अंग्रेज लाए थे। आजादी के बाद प्रधानमंत्री नेहरू ने इसे जारी रखने का फैसला किया और 1958 एक्ट के रूप में नोटिफाई किया। नॉर्थ ईस्ट राज्यों सहित जम्मू-कश्मीर, पंजाब में भी इसे लागू किया जा चुका है।

पंजाब से सबसे पहले इसे हटाया गया था। बाद में त्रिपुरा और मेघालय से भी हटा दिया गया। मिजोरम, नगालैंड, मणिपुर, असम, जम्मू-कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में अब भी यह लागू है। इस एक्ट को उन क्षेत्रों में ज्यादा लागू किया जाता है, जहां आतंकवाद फैला हुआ है।

मोन में हुई घटना के बाद कौन से सवाल खड़े हो रहे हैं…
यह एक्ट सुरक्षा बलों को ओपन फायर का पावर देता है, लेकिन बिना चेतावनी दिए फायर नहीं किया जा सकता। मोन में सबसे बड़ा सवाल यही खड़ा हो रहा है कि सिक्योरिटी फोर्सेज ने पहले चेतावनी दी या नहीं। घायलों का कहना है कि उन्हें कोई चेतावनी नहीं दी गई।
एक्ट कहता है कि, आर्म्ड फोर्सेज को जिला प्रशासन के साथ मिलकर कार्रवाई करना चाहिए। किसी स्वतंत्र बॉडी की तरह ऑपरेशन नहीं किए जाना चाहिए। मोन में जो हुआ, उसमें लोकल लॉ इंफोर्सेमेंट एजेंसीज को ऑपरेशन में शामिल नहीं किया गया।

अब पढ़िए एक्सपर्ट्स की बात….

एक्ट हटाना मतलब आतंक से समझौता
साल 2010 में मैं जम्मू-कश्मीर में CRPF का स्पेशल DG था। तब भी ये एक्ट वहां लागू था। हमे सूचना मिली कि लाल चौक में दो आतंकवादी घुसे हुए हैं। हमने तुरंत उनकी घेराबंदी की और एनकाउंटर कर दिया। आतंकी मौके पर ही मारे गए। यदि AFSPA की पावर हमें नहीं मिली हुई होती तो हम वहां क्या करते। इस एक्ट के बिना आप आतंकवाद को खत्म नहीं कर सकते।

नगालैंड में जो हुआ वो आर्मी की एक गलती है, इसलिए कोर्ट ऑफ इंक्वायरी भी ऑर्डर की गई है। ये एक भूल थी जो नहीं होना चाहिए थी, लेकिन सिर्फ इस घटना को देखते हुए इस एक्ट को हटाया नहीं जा सकता। यह जरूरी है तभी इसे कांग्रेस से लेकर BJP तक नहीं हटा सकी हैं, क्योंकि यह एक्ट आर्म फोर्सेज को प्रोटेक्शन देता है। कुछ ऊंचा-नीचा भी हो जाए तो हमारे खिलाफ केस रजिस्टर्ड नहीं होगा। पुलिस मुकदमा दर्ज भी कर लेती है तब भी मामला न्यायालय में नहीं जाएगा। हां, केंद्र सरकार चाहे तो जरूर कार्रवाई कर सकती है, क्योंकि पावर मिलने का ये मतलब तो है नहीं की जो चाहे वो करो। इसलिए केंद्र को कार्रवाई का अधिकार दिया गया है।

ऐसे में इस एक्ट को हटाना आतंकवाद से समझौता करना होगा। यदि इसे पूरी तरह से हटाया जाता है तो फिर आप आतंकवाद को भूल जाइए। ऐसा करने से कश्मीर पाकिस्तान को डोनेट करने जैसा होगा। हां, ये जरूर हो सकता है कि जिन एरिया में इसकी जरूरत नहीं है वहां से इसे जरूर हटाया जा सकता है। जिन जिलों में मिलिटेंट एक्टिविटी नहीं होतीं, वहां इसे हटाने के बारे में सोचा जा सकता है। – एनके त्रिपाठी, रिटायर्ड स्पेशल DG जम्मू-कश्मीर

जहां जरूरी, वहीं लागू रखना चाहिए
जहां सिचुएशन नॉर्मल हैं, वहां इस एक्ट को बनाए रखने की कोई जरूरत नहीं है। इसमें फौज को प्रोटेक्शन मिलता है लेकिन इस प्रोटेक्शन के चलते इसका मिसयूज होने के चांस भी बढ़ जाते हैं, जैसा अभी नागालैंड में हुआ। इस घटना के बाद भले ही सेना इंक्वायरी कर रही है, लेकिन जो फेयरनेस दिखनी चाहिए वो तो नहीं दिखेगी। जो न्याय पीड़ित को कोर्ट में मिलता है वो इस इंक्वायरी में तो कभी नहीं मिल सकेगा।

इस एक्ट को हटा भी दिया जाए तो सेना स्थानीय पुलिस के साथ मिलकर तो एक्शन ले ही सकती है। पुलिस और सेना दोनों की इंटेलिजेंस होती है, तो फिर लोकल पुलिस को इन्वॉल्व करके एक्शन क्यों नहीं लिया जाता। जम्मू-कश्मीर से लेकर नगालैंड तक में कई ऐसे मामले सामने आ चुके हैं जिनमें इस एक्ट के चलते बेगुनाहों की जान गई। नगालैंड के चुराचांदपुर में ही CRPF ने बस से उतारकर बेगुनाहों को मार दिया था। पहले उन्हें मिलिटेंट बताया था, लेकिन बाद में पता चला कि वो सिविलियन थे।

इसके बाद ही CRPF को वहां से हटाकर BSF को मुस्तैद किया गया था और मेरी भी वहां ड्यूटी थी। इस एक्ट को बहुत जरूरी इलाकों में ही लागू रखा जाना चाहिए। ऐसे एरिया जहां मिलिटेंट एक्टिविटी नहीं हो रहीं, वहां इसे बनाए रखे जाने की क्या जरूरत है। – संजीव कृष्ण सूद, रिटायर्ड एडिशनल DG, BSF

Saurabh Mishra
Author: Saurabh Mishra

Saurabh Mishra is a 32-year-old Editor-In-Chief of The News Ocean Hindi magazine He is an Indian Hindu. He has a post-graduate degree in Mass Communication .He has worked in many reputed news agencies of India.

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